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या ते॑ का॒कुत्सुकृ॑ता॒ या वरि॑ष्ठा॒ यया॒ शश्व॒त्पिब॑सि॒ मध्व॑ ऊ॒र्मिम्। तया॑ पाहि॒ प्र ते॑ अध्व॒र्युर॑स्था॒त्सं ते॒ वज्रो॑ वर्ततामिन्द्र ग॒व्युः ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yā te kākut sukṛtā yā variṣṭhā yayā śaśvat pibasi madhva ūrmim | tayā pāhi pra te adhvaryur asthāt saṁ te vajro vartatām indra gavyuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

या। ते॒। का॒कुत्। सुऽकृ॑ता। या। वरि॑ष्ठा। यया॑। शश्व॑त्। पिब॑सि। मध्वः॑। ऊ॒र्मिम्। तया॑। पा॒हि॒। प्र। ते॒। अ॒ध्व॒र्युः। अ॒स्था॒त्। सम्। ते॒। वज्रः॑। व॒र्त॒ता॒म्। इ॒न्द्र॒। ग॒व्युः ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:41» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) धर्म्म के धारण करनेवाले मनुष्यों के स्वामिन् ! (ते) आपकी (या) जो (सुकृता) सत्य भाषण आदि उत्तम किया से युक्त और (या) जो (वरिष्ठा) अतिशय उत्तम (काकुत्) उत्तम प्रकार शिक्षा की गई वाणी (यया) जिससे आप (ऊर्मिम्) तरंग को जैसे वैसे (मध्वः) मधुर आदि गुणों से युक्त के रस को (शश्वत्) निरन्तर (पिबसि) पान करते हो और जिससे (ते) आपका (अध्वर्युः) अपने अहिंसारूप व्यवहार की कामना करते हुए अच्छे प्रकार से (प्र, अस्थात्) स्थित होते हो और जिससे (ते) आपका (वज्रः) शस्त्र और अस्त्रों का समूह (सम्, वर्त्तताम्) उत्तम प्रकार वर्त्तमान होवे (तया) उससे (गव्युः) पृथिवी राज्य की इच्छा करनेवाले हुए सम्पूर्ण प्रजाओं का (पाहि) पालन करिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा और राजा के सभासद् उत्तम प्रकार संस्कार की विद्या से युक्त, सत्यभाषण से उज्ज्वलित वाणियों को प्राप्त होकर उनसे प्रजापालन आदि व्यवहारों को निरन्तर सिद्ध करें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र नरेश ! या सुकृता या वरिष्ठा काकुद्यया त्वमूर्मिमिव मध्वो रसं शश्वत् पिबसि यया तेऽध्वर्युः प्रास्थात्। ते वज्रो संवर्त्ततां तया गव्युः सन् सर्वाः प्रजाः पाहि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (या) (ते) तव (काकुत्) सुशिक्षिता वाक्। काकुरिति वाङ्नाम। (निघं०१.११) (सुकृता) सत्यभाषणादिशुभक्रियायुक्ता (या) (वरिष्ठा) अतिशयेनोत्तमा (यया) (शश्वत्) निरन्तरम् (पिबसि) (मध्वः) मधुरादिगुणयुक्तस्य (ऊर्मिम्) तरङ्गमिव (तया) (पाहि) रक्ष (प्र) (ते) तव (अध्वर्युः) आत्मनोऽध्वरमहिंसाव्यवहारं कामयमानः (अस्थात्) तिष्ठति (सम्) (ते) तव (वज्रः) शस्त्रास्त्रसमूहः (वर्त्तताम्) (इन्द्र) धर्मधर (गव्युः) गां पृथिवीराज्यमिच्छुः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजा राजसभ्याश्च सुसंस्कृता विद्यायुक्ताः सत्भाषणोज्ज्वलिता वाचः प्राप्य ताभिः प्रजापालनादीन् व्यवहारान्त्सततं संसाध्नुयुः ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजा व राजसभासद यांनी सुसंस्कृत, विद्येने युक्त, सत्य वचनाने प्रखर वाणी प्राप्त करून प्रजापालन इत्यादी व्यवहार निरंतर सिद्ध करावे. ॥ २ ॥